सोमवार, 16 अक्तूबर 2017

बेइरादा

वो तो बस बेइरादा निकले थे घर से
ना जाने क्यों कई क़त्लों का इल्ज़ाम उनके सिर आ गया

ना जाने कितनों को बेमौत मार डाला
आज वो बेमौके छत पे जो आ गये

कुछ इस क़दर मैंने चाहा है उनको

मानो कोई पुराना क़र्ज़ चुकाने की कोशिश की है
हिसाब बराबर करने का इरादा नही है मेरा
ये क़र्ज़ तो बार बार उतारने की हसरत लिये
ज़िन्दा हूँ मै

1 टिप्पणी:

JIGNASA PATEL ने कहा…

कर्ज उतारने की हसरत से जिन्दा हूं में...too deep

उफ ये बेचैनी

ये बेचैनी हमे जीने नही देगी और बेचैनी चली गई तो शायद हम ही ना जी पाये तेरे इश्क मे सुकून कभी मिला ही नही बे-आरामी मे रहने की ये आदत ...