वो तो बस बेइरादा निकले थे घर से
ना जाने क्यों कई क़त्लों का इल्ज़ाम उनके सिर आ गया
ना जाने कितनों को बेमौत मार डाला
आज वो बेमौके छत पे जो आ गये
कुछ इस क़दर मैंने चाहा है उनको
मानो कोई पुराना क़र्ज़ चुकाने की कोशिश की है
हिसाब बराबर करने का इरादा नही है मेरा
ये क़र्ज़ तो बार बार उतारने की हसरत लिये
ज़िन्दा हूँ मै
ना जाने क्यों कई क़त्लों का इल्ज़ाम उनके सिर आ गया
ना जाने कितनों को बेमौत मार डाला
कुछ इस क़दर मैंने चाहा है उनको
मानो कोई पुराना क़र्ज़ चुकाने की कोशिश की है
हिसाब बराबर करने का इरादा नही है मेरा
ये क़र्ज़ तो बार बार उतारने की हसरत लिये
ज़िन्दा हूँ मै
1 टिप्पणी:
कर्ज उतारने की हसरत से जिन्दा हूं में...too deep
एक टिप्पणी भेजें